आईआईटी मंडी के शोधकर्ता ने अंतर्राष्ट्रीय सहयोगियों के साथ मिलकर पार्किंसंस रोग संबंधी महत्वपूर्ण जानकारियों का किया खुलासा 

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आदर्श हिमाचल ब्यूरो 
मंडी। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मंडी के शोधकर्ता ने अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों के साथ मिलकर पार्किंसंस रोग के लिए जिम्मेदार एक महत्वपूर्ण प्रोटीन का अध्ययन किया है। डॉ. दुबे धीरज प्रकाशचंद, सहायक प्रोफेसर, स्कूल ऑफ मैकेनिकल एंड मैटेरियल्स इंजीनियरिंग, आईआईटी मंडी ने सुश्री पद्मिनी रंगमणि, पीएचडी, और मुख्य लेखक डॉ. सुभोजित रॉय, एमडी, पीएचडी (दोनों कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, सैनडिएगो, यूएसए से) के साथ मिलकर यह मुख्य अंतर्दृष्टि प्रदान की है कि पार्किंसंस में देखा जाने वाला प्रोटीन, अल्फा-सिन्यूक्लिन, का फॉस्फोराइलेशन न केवल पार्किंसंस रोग में, बल्कि सामान्य मस्तिष्क क्रिया में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
पूरे विश्व में पार्किंसंस रोग तेजी से बढ़ रहा है और विशेषज्ञों का यह अनुमान है कि अगले दो से तीन दशकों में भारत में इसके मामलों में 200-300% तक की भारी वृद्धि हो सकती है। दुनिया भर के शोधकर्ता इस बीमारी की जटिलताओं को सुलझाने में सक्रिय रूप से लगे हुए हैं, वे इसके कारणों और विकास से लेकर इसके पैटर्न और परिणामों को समझने का प्रयास कर रहे हैं।

कई विश्वविद्यालयों की अंतरराष्ट्रीय टीम के विशेषज्ञों जिसमें आईआईटी मंडी भी शामिल है, मेडिकल स्कूलों और दवा कंपनियों ने पार्किंसंस रोग से जुड़े एक खास प्रोटीन की प्रकृति को समझने के लिए कई तकनीकों का इस्तेमाल किया है। यह प्रोटीन, जिसे अल्फा-सिन्यूक्लिन कहा जाता है, हमारे दिमाग में भरपूर मात्रा में पाया जाता है। पार्किंसंस रोग और इससे जुड़ी बीमारियों से ग्रस्त लोगों में यह प्रोटीन अत्यधिक फॉस्फोराइलेटेड होता है, यानी इस प्रोटीन के एक विशेष अमीनो एसिड (सेरीन-129) से जुड़े फॉस्फेट समूहों की संख्या बहुत अधिक होती है।

मस्तिष्क में मौजूद प्रोटीनों पर फॉस्फोराइलेशन को आप आणविक स्तर पर एक “मास्टर स्विच” की तरह समझ सकते हैं। इसमें बहुत छोटा फॉस्फेट समूह (PO4) प्रोटीन से जुड़ जाता है। यह क्रिया एक स्विच को दबाने के समान है, जो उस प्रोटीन को सक्रिय या निष्क्रिय कर देता है। इससे प्रोटीन के दूसरे प्रोटीनों से जुड़ने का तरीका प्रभावित होता है, और यही जुड़ाव पार्किंसंस रोग को बढ़ा सकता है। अल्फा-सिन्यूक्लिन भी एक प्रोटीन ही है, जो अमीनो एसिड की एक लंबी श्रृंखला से बना है। इस श्रृंखला में 129वें स्थान पर एक खास जगह होती है, जहां फॉस्फोराइलेशन हो सकता है। अगर इस जगह को रोका जा सके, तो प्रोटीन के दूसरे प्रोटीनों से गलत तरीके से जुड़ने की संभावना कम हो जाएगी, जिससे पार्किंसंस रोग के बढ़ने को नियंत्रित किया जा सकेगा।

आईआईटी मंडी के स्कूल ऑफ मैकेनिकल एंड मटीरियल्स इंजीनियरिंग के सहायक प्रोफेसर डॉ. दुबे धीरज प्रकाशचंद ने इस शोध के बारे में कहा, “यह महत्वपूर्ण अध्ययन पार्किंसंस से जुड़े एक प्रोटीन परिवर्तन को समझने का नया तरीका देता है। यह दिखाता है कि α-synuclein प्रोटीन पर एक निश्चित स्थान पर होने वाला फॉस्फोराइलेशन नामक परिवर्तन सिर्फ बीमारी का सूचक ही नहीं है, बल्कि सामान्य मस्तिष्क कार्य के लिए भी यह महत्वपूर्ण है। इस अध्ययन से पता चलता है कि इस प्रक्रिया को रोकने से मस्तिष्क क्रिया को नुकसान पहुंच सकता है। वहीँ इससे पार्किंसंस के इलाज के बारे में सोचने के नए तरीके सामने आ सकते हैं, जो बीमारी को ठीक करने के साथ-साथ मस्तिष्क को स्वस्थ रखने में भी   देते हैं।”

वैज्ञानिकों की एक टीम ने चूहों पर इस प्रक्रिया का अध्ययन करके यह समझने की कोशिश की है कि यह खास प्रोटीन कैसे काम करता है और उस पर होने वाले बदलाव (फॉस्फोराइलेशन) का क्या असर होता है। उन्होंने पाया कि अगर इस प्रोटीन के बदलाव को रोका जाए, तो दिमाग के सामान्य काम पर बुरा असर पड़ता है। इसका मतलब है कि यह बदलाव दिमाग के लिए जरूरी है और इसे पूरी तरह से रोकना सही नहीं होगा। वैज्ञानिक अब यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि इस बदलाव को कैसे नियंत्रित किया जा सके, ताकि पार्किंसंस रोग का इलाज किया जा सके और दिमाग को स्वस्थ रखा जा सके।
वैज्ञानिकों ने फॉस्फोराइलेटेड प्रोटीन के कारण होने वाले संरचनात्मक बदलावों को समझने के लिए उन्नत कंप्यूटर मॉडलिंग का भी इस्तेमाल किया। इससे उन्हें यह समझने में मदद मिली कि यह बदलाव कैसे प्रोटीन को अन्य प्रोटीनों के साथ जुड़ने में सक्षम बनाता है।
इस शोध के नतीजों के तीन महत्वपूर्ण बिंदु हैं:
• सही मात्रा में SER129 बनाए रखना: इससे दवाएं या जीन थेरेपी डिजाइन की जा सकती हैं, ताकि मस्तिष्क के विशिष्ट क्षेत्रों में SER129 का स्तर सही बना रहे।
• प्रोटीन संपर्क को नियंत्रित करना: सेरीन-129 पर फॉस्फोराइलेशन (Ser129P) से जुड़े प्रोटीनों के बीच संपर्क को या तो बढ़ाने या रोकने के लिए अणुओं को डिजाइन किया जा सकता है। यह पार्किंसंस जैसी बीमारियों के उपचार में मददगार हो सकता है।
• रोग मॉडल को सुधारना: Ser129P की बेहतर समझ का उपयोग करके पार्किंसंस जैसे रोगों का अध्ययन करने वाले मॉडल को बेहतर बनाया जा सकता है। इन मॉडलों का उपयोग यह देखने के लिए किया जा सकता है कि क्या पार्किंसंस की दवाएं किसी भी तरह से Ser129P को प्रभावित करती हैं।
यह शोध कार्य एक पेपर के रूप में ओपन एक्सेस जर्नल न्यूरॉन में प्रकाशित हुआ है और इस लिंक https://doi.org/10.1016/j.neuron.2023.11.020 के माध्यम से देखा जा सकता है।