कविता ———-डॉ एम डी सिंह

Poem ---------- Dr. M. D. Singh

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कब होती है सुबह उठे बगैर
कब होती है शाम झुके बगैर
खुली हुई हैं नजरें तो दिन है
कब होती है रात सुते बगैर
यह जिंदगी इक कारवां है दोस्त
कब होती है खतम लुटे बगैर
चली आई जो दिमाग में ग़ज़ल
कब होती है शांत कहे बगैर
रुकिए कुछ देर गुफ्तगू कर लें
कब होती है बात रुके बगैर
डॉ एम डी सिंह