संपादकीय: अंतराष्ट्रीय योग दिवस में भारत का योगदान 

डॉ मामराज पुंडीर प्रान्त महामंत्री अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ
डॉ मामराज पुंडीर प्रान्त महामंत्री अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ
आदर्श हिमाचल ब्यूरो 
शिमला। भारतीय योग एवं ध्यान के माध्यम से भारत दुनिया में गुरु का दर्जा एवं एक अनूठी पहचान हासिल करने में सफल हो रहा है। इसीलिये समूची दुनिया के लिये अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस स्वीकार्य हुआ है। आज हर व्यक्ति एवं परिवार अपने दैनिक जीवन में अत्यधिक तनाव/दबाव महसूस कर रहा है। हर आदमी संदेह, अंतर्द्वंद्व और मानसिक उथल-पुथल की जिंदगी जी रहा है। मनुष्य के सम्मुख जीवन का संकट खड़ा है। मानसिक संतुलन अस्त-व्यस्त हो रहा है। मानसिक संतुलन का अर्थ है विभिन्न परिस्थितियों में तालमेल स्थापित करना, जिसका सशक्त एवं प्रभावी माध्यम योग ही है। योग एक ऐसी तकनीक है, एक विज्ञान है जो हमारे शरीर, मन, विचार एवं आत्मा को स्वस्थ करती है। यह हमारे तनाव एवं कुंठा को दूर करती है। जब हम योग करते हैं, श्वासों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, प्राणायाम और कसरत करते हैं तो यह सब हमारे शरीर और मन को भीतर से खुश और प्रफुल्लित रहने के लिये प्रेरित करती है। सद्गुरू मानते हैं, ‘ध्यान और योग से हम अपने भीतर की सफाई बहुत अच्छी तरह से कर सकते हैं। योग का प्रयोजन है, मन की गांठों को खोलना और उनका इलाज करना।’
पिछले दिनों कनाडा के ओंटेरियो यूनिवर्सिटी में हुए एक अध्ययन के अनुसार कुंठा और तनाव के लगभग 64 प्रतिशत मरीजों ने माना कि उन्हें इस बात का अंदाज नहीं था कि उनकी खास बीमारी की वजह अंदर दबा गुस्सा हो सकता है। यह गुस्सा दूसरों की वजह से शुरू होता है और अंततः इसे आप अपने ऊपर निकालने लगते हैं। कुछ मामलों में मरीजों ने अपने आपको नुकसान भी पहुंचाया। एबी कहते हैं, ‘आपको पता ही नहीं होता कि आपने अपने दिल में क्या-क्या भर रखा है। इसके लिए जरूरी है कि अपने आपको जानें। अगर कोई पुरानी बात आपको मथ रही है तो उसे जाने न दें। आप उस व्यक्ति को माफ कर दें और खुद को भी। इस तरह बिना बोझ के आप जिंदगी में आगे बढ़ पाएंगे।’ मन की गंदगी को धोने का माध्यम है योग।
पवित्र अंतःकरण ही वह दर्पण है जिसमें आत्मा का दर्शन, प्रकृति का प्रदर्शन और ब्रह्म का संदर्शन होता है। शुद्ध अंतःकरण मंे बुद्धि आकाशवत् निर्मल और स्वच्छ रहती है, मन गंगा जैसा पवित्र रहता है, चित्त ऐसा स्थिर रहता है जैसे बिना वायु के अविचल दीपक की ज्योति और सम्पूर्ण चेतना भगवान में मिलने के लिए ऐसी बहती है जैसे समुद्र में मिलने के लिए नदियां। जैसे शीशे में अपना चेहरा तभी दिखलायी पड़ता है जबकि शीशा साफ और स्थिर हो, इसी प्रकार शुद्ध अंतःकरण से ही परम ब्रह्म के दर्शन होते हैं।
ईर्ष्या जीवन की बड़ी विसंगति है, यह एक तरह की मानसिक व्याधि है। ईर्ष्यालु मनुष्य में सुख एवं स्वास्थ्य का भाव दुर्बल होता है। उसकी इस वृत्ति के कारण वह निरंतर मानसिक तनाव में जीता है। उसके संकीर्ण विचार और व्यवहार से पारिवारिक और सामाजिक जीवन में टकराव और बिखराव की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। जिसका किसी भी मंत्र-तंत्र, जड़ी-बूटी व औषधि से चिकित्सा संभव नहीं है। ईर्ष्यालु मनुष्य तनाव झेलता ही है, दूसरों को भी तनाव देने का प्रयास करता है। हमें अपनी योग्यताओं और क्षमताओं को किसी दायरे में बांधने से बचना होगा। ऐसा तब होगा, जब हम अपनी कमजोरियों पर ही नहीं, बल्कि उनसे उबरने के रास्तों पर भी विचार करेंगे। यहीं से हमारी तरक्की का रास्ता खुलता है और इसके लिये योग की प्रभावी माध्यम है।
अभी कुछ दिन पहले ही एक बात समाचारपत्रों में पढ़ी कि कैंसर क्यों होता है, इसके कई कारण हैं। एक कारण यह है कि जो लोग मस्तिष्क का सही उपयोग करना नहीं जानते उनके कैंसर हो सकता है। मस्तिष्क विज्ञानी तो यह भी कहते हैं कि मस्तिष्क की शक्तियों का केवल चार या पांच प्रतिशत उपयोग आदमी करता है, शेष शक्तियां सुप्त पड़ी रहती है। यह भी कहा जाता है कि कोई मस्तिष्क की शक्तियों का उपयोग सात या आठ प्रतिशत करने में समर्थ हो जाए तो वह दुनिया का सुपर जीनियस बन सकता है। इस आधार पर तो हम यही कह सकते हैं कि हम अपने मस्तिष्क का सही और पूरा उपयोग करना नहीं जानते। यह ऐसी ही बात है कि हमारे पास बहुत कुछ और सब कुछ है, किन्तु अपनी अज्ञानता के कारण हम गरीब और निरीह बने हुए हैं। चाहे कर्म का क्षेत्र हो या धर्म का क्षेत्र हो, दोनों में हम पिछड़े हुए हैं। सबसे पहले हमारी जानकारी मस्तिष्क विद्या के बारे में होनी चाहिए। योग विद्या भारत की सबसे प्राचीन विद्या है। योगविद्या के आचार्यों ने मस्तिष्क विद्या से दुनिया का परिचय कराया था और उसके विकास का
बहुत सारी समस्याएं अज्ञान के कारण पैदा होती हैं। शरीर और उसके विभिन्न अवयवों के बारे में जानकारी के अभाव में आदमी के सामने अनेक शारीरिक कठिनाइयां खड़ी हो जाती हैं। हमारे मस्तिष्क में एक पर्त है एनीमल ब्रेन की। वह पर्त सक्रिय होती है तो आदमी का व्यवहार पशुवत हो जाता है। जितने भी हिंसक और नकारात्मक भाव हैं, वे इसी एनीमल ब्रेन की सक्रियता का परिणाम है। इसे संतुलित करने का माध्यम योग है। शारीरिक, मानसिक और अध्यात्मिक शांति एवं स्वस्थ्यता के लिये योग की एकमात्र रास्ता है। लेकिन भोगवादी युग में योग का इतिहास समय की अनंत गहराइयों में छुप गया है। वैसे कुछ लोग यह भी मानते हैं कि योग विज्ञान वेदों से भी प्राचीन है। दुनिया में भारतीय योग को परचम फहराने वाले स्वामी विवेकानंद कहते हैं-‘‘निर्मल हृदय ही सत्य के प्रतिबिम्ब के लिए सर्वोत्तम दर्पण है। इसलिए सारी साधना हृदय को निर्मल करने के लिए ही है। जब वह निर्मल हो जाता है तो सारे सत्य उसी क्षण उसमें प्रतिबिम्बित हो जाते हैं।…पावित्र्य के बिना आध्यात्मिक शक्ति नहीं आ सकती। अपवित्र कल्पना उतनी ही बुरी है, जितना अपवित्र कार्य।’’ आज विश्व में जो आतंकवाद, हिंसा, युद्ध, साम्प्रदायिक विद्धेष की ज्वलंत समस्याएं खड़ी है, उसका कारण भी योग का अभाव ही है।
हम अपनी समस्या को समझें और अपना समाधान खोजें। समस्याएं परेशान करती हैं। जरूरत खुद को काबू में रखने की होती है, हम दूसरों को काबू में करने में जुटे रहते हैं। रूमी कहते हैं, ‘तूफान को शांत करने की कोशिश छोड़ दें। खुद को शांत होने दें। तूफान तो गुजर ही जाता है।’ लेकिन ऐसा नहीं होता, क्योंकि हमारा मनोबल कमजोर होता है।
विज्ञान ने यह प्रमाणित कर दिया है- जो व्यक्ति स्वस्थ रहना चाहता है, उसे योग को अपनाना होगा। बार-बार क्रोध करना, चिड़चिड़ापन आना, मूड का बिगड़ते रहना- ये सारे भाव हमारी समस्याओं से लडने की शक्ति को प्रतिहत करते हैं। इनसे ग्रस्त व्यक्ति बहुत जल्दी बीमार पड़ जाता है। हमें अपनी योग्यताओं और क्षमताओं को किसी दायरे में बांधने से बचना होगा। ऐसा तब होगा, जब हम योग को अपनी जीवनशैली बनायेंगे।
हम जितना ध्यान रोगों को ठीक करने में देते हैं, उतना उनसे बचने में नहीं देते। दवा पर जितना भरोसा रखते हैं, उतना भोजन पर नहीं रखते। यही कारण है रोग पीछा नहीं छोड़ते। हमें यह पता होता है कि कार के लिए कौन सा ईंधन सही है, पर हम ये नहीं जानते कि शरीर को ठीक रखने के लिए कौन से ईंधन की जरूरत है? हमें कैसा भोजन करना चाहिए? कैसी सोच चाहिए? कैसी जीवनशैली चाहिए?
योग एवं ध्यान एक ऐसी विधा है जो हमें भीड़ से हटाकर स्वयं की श्रेष्ठताओं से पहचान कराती है। हममें स्वयं पुरुषार्थ करने का जज्बा जगाती है। स्वयं की कमियों से रू-ब-रू होने को प्रेरित करती है। स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार कराती है। आज जरूरत है कि हम अपनी समस्याओं के समाधान के लिये औरों के मुंहताज न बने। ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान हमारे भीतर से न मिले। भगवान महावीर का यह संदेश जन-जन के लिये सीख बने- ‘पुरुष! तू स्वयं अपना भाग्यविधाता है।’ औरों के सहारे मुकाम तक पहुंच भी गए तो क्या? इस तरह की मंजिलें स्थायी नहीं होती और न इस तरह का समाधान कारगर होता है। लेखिका व वक्ता गैब्रियल बर्नस्टेन ने भी कहा है कि ‘हम इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं कि हमारी आंखें क्या देखती हैं? हम जिम्मेदार इस बात के लिए हैं कि उसे कैसे अपनाते हैं।’ हमारे भीतर ऐसी शक्तियां हैं, जो हमें बचा सकती हैं। योग, संकल्प एवं संयम की शक्ति बहुत बड़ी शक्ति है। अनावश्यक कल्पना मानसिक बल को नष्ट करती है। लोग अनावश्यक कल्पना बहुत करते हैं। यदि उस कल्पना को योग में बदल दिया जाए तो वह एक महान शक्ति बन सकती है।
लेखक: अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ के प्रांत महामंत्री डॉ मामराज पुंडीर
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