विशेषः हर मौसम की अपनी रंगत अपनी खुशबू

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आदर्श हिमाचल ब्यूरो

शिमला। सर्द हवाओं में सफेद क्रिसमस नये साल की सुगबुगाहट लिए हर वर्ष दिसम्बर ढेरों उपलब्धियों के संग रूकसत होता है । साल भर के अच्छे बुरे अनुभव , उपलब्धियां , नये साल के संकल्प सब साथ साथ चलने लगते हैं।

1995 के जाते साल में कुछ कुछ ऐसा ही माहौल था संविधान के 73वें संशोधन के अन्तर्गत हमारे पंचायती चुनाव प्रक्रिया में थ्री टायर सिस्टम बनाया गया था , जिस के अन्तर्गत हिमाचल में पहली बार ग्राम पंचायत के साथ साथ बी डी सी सदस्य, जिला परिषद का चुनाव होने जा रहा था ।
एस डी एम ग्रामीण शिमला ने मेरी सहमति के बाद काउटिग में मेरी डियुटी लगा दी। दरअसल इस काम में अलग अनुभव होने का मोह मुझे ड्यूटी करने के लिए प्रेरित कर रहा था और मैं बहुत उत्साहित हो कर चुनाव से सम्बंधित सभी कार्यों का निरीक्षण कर रही थी । चुनावी माहौल ने चार चार फुट की बर्फ के बीच भी मौसम को गर्मा दिया था।
मशोबरा में चुनाव के बाद मतों की गिनती होनी थी जिसके लिए के लिए हम सुबह 11 बजे हाल में दाखिल हुए । उस समय सभी मतों की गिनती मैनुअल की गई ।
मेरे टेबल पर डी सी आफिस के दो कर्मचारी मेरे साथ काम में जुट गए । पूरे हाल में मैं ही अकेली महिला अधिकारी थी। 
कब दिन गुजरा कब रात हुई पता ही नहीं चला। वहीं चाय खाना पहुंचाने की व्यवस्था थी। पूरी काउटिंग किये बिना हाल से निकलने की मनाही थी । बाहर से केवल चुनाव में खड़े प्रतिभागियों के प्रतिनिधि ही दाखिल हो सकते थे।
दिन बीतते रात शुरू हो गयी। मैं अपनी नौ माह की बेटी और छः साल के बेटे को छोड़ कर आई थी। उनकी चिन्ता होना स्वाभाविक था । मेरे पिताजी ए डी एम को फोन कर पूछते रहे कितना समय और लगेगा ।
दो बार लघुशंका के लिए बाहर जाने पर बन्दूकधारी सिपाही साथ रहा। जैसे जैसे रात बढती गई हाल का माहौल बदलने लगा ।
कुछ कुछ शराब की गन्ध आसपास तैरने लगी। मैं भयभीत तो नहीं पर कुछ असहज जरूर थी। जैसे ही किसी जगह की गिनती पूरी होती और तहसीलदार नाम सुनाते बाहर ढोल नगाड़े की ध्वनि तैरने लगती । फिर शोर रात के सन्नाटे को भेद ठण्ड को तोड़ कर गर्मा उठता।
जैसे तैसे रात बीत रही थी और काउटिग पूरी हो रही थी । चुनाव के अन्तिम नतीजा आते आते सुबह के चार बज गये ।
घर वापसी की खुशी में और एक अलग ड्यूटी देने का गर्व हो रहा था । एस डी एम साहब ने तहसीलदार को हिदायत दी मैडम को गाड़ी में घर पहुंच कर आना क्योंकि अभी सवेरा नहीं हुआ था और वो जगह शहर से 25 किलोमीटर दूर थी।
बेअदबी और बेगैरत क्या कहूँ सभी डी सी आफिस के बाबू झट से गाड़ी की ओर ऐसे लपके जैसे वर्षो की जेल से कैदी बाहर निकलते हैं । गाडी फुल्ल । कहाँ बैठूं??
तभी तहसीलदार साहब बाहर निकले बोले आप अगली सीट पर मेरे साथ आ जाईए । मैं परेशान सभी आफिसर जा चुके थे । मोबाइल था नहीं जो किसी से फरियाद करती । बेबसी का आलम आखों में आंसू लिए मैं साथ बैठने को मजबूर । आलम ये देखिये पिछली सीट पर बैठे बाबुओं का बेगैरत रवैया और तहसीलदार की बेशर्मी के कारण मैं उनके साथ अगली सीट पर बैठने को मजबूर हुई।
पुरुष मानसिकता जो यदाकदा महिलाओं को सम्मान देने की अपेक्षा निरादर करने पर उतारू रहती है को जड़ से निकाला जाना जरूरी है ।।