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देखिए, डॉ. एम डी सिंह की ओर से मां दुर्गा महिषसुर मर्दिनी का सुंदर...

आदर्श हिमाचल ब्यूरो शिमला। डॉ एम डी सिंह की ओर से मां दुर्गा महिषसुर मर्दिनी का सुंदर वर्णन किया गया है। आपको बता दें कि...

दादी अम्मा ने जब दबी आवाज में कहा – मैंने पहले ही पंचायत को...

आदर्श हिमाचल ब्यूरो   शिमला।     पूरेविश्व में कोरोना महामारी फैली हुई है और कई देशों ने  इस बीमारी से बचने के लिए लाॅकडाउन ( बंद ) का सहारा लिया।  हालांकि स्थितियों में कुछ सुधार हुआ भी है। कल ही गाँव के कुछ बुद्धिजीवी चौपाल पर  इस महामारी को सुनियोजित खेल बता रहे थे। खैर ! अब सब खुलने के बाद सामान्य सा हो चला है, ज़िंदगी फिर पटरी पर लौटने लगी है  किन्तु, डर अभी भी   ज्यों का त्यों ही है। और हो भी क्यों न ? इस बीमारी ने अमीरों की जेबें भर ली और मज़दूरों की कमर तोड़ दी , भले ही सरकार लाख दावे करे किन्तु सब बखत का खेला है।  नासपीटा बखत ख़राब  न होता तो बरसात अच्छी होती। जो तब लॉक -डाउन में न कमा सके उसे अब कमा लेते लेकिन यहां तो पिने को भी पानी नहीं मिल रहा, बाकि खेती तो दूर। इसी बात को लेकर दादी अम्मा  से भी चर्चा हो रही थी।  उन्होंने भी कहा 70 साल में ऐसे मंजर शायद पहली बार देखा कि हमारे घर के लिए पानी का स्त्रोत ही सुख गया। फिर दबी आवाज़ में उन्होंने कहा- कि “मैंने पहले ही पंचायत को जगह-जगह हैंडपंप लगाने को मना किया था, सब उसी का नतीजा है ”।  पर कुदरत भी तो मेहरबान नहीं थी। “जेठ करे जलबिंबिया- हाड़ करे जलशोख, शावण मईने इक तारा दिखे-कांपे तीन तरलोक”। दादी ने इसे पढ़कर इसका असली मतलब समझाने की हल्की कोशिश की - “ज्येष्ठ माह में अगर बारिश होती है तो उस पानी का कोई लाभ नहीं होता क्यों-कि तेज़ वर्षा से पानी बह जाया करता है तथा आषाढ़ माह में धरती में वर्षा जल सुख जाता है। और यदि सावन माह में एक भी तारा जब आकाश मे दिखाई देता है तो पृथ्वी पर 100 मन (1600 किलोग्राम) अनाज कम हो जाया करता है”। घर के बरामदे में दादी और पिताजी के साथ  बैठा मैं सुबह लगभग 10 बजे अपने खेतों में लगाए अनार के पौधों को बेबसी से देख रहा था जो-कि लगभग सूखने की कगार पर हैं , ऊपर से खेतों की नमी जो बिल्कुल  गायब है और धरती आग उगल रही है। इसी सोच में डूबा फ़ोन की घंटी से थोड़ा सचेत हुआ । गाँव के एक लंगोटिए दोस्त ने बताया कि हाज़रू दादू ने सब को बुलाया है। ऐसा क्या हुआ होगा ? उम्र भी 80 के आस-पास है। कहीं बीमार तो नहीं ? कुछ समय पहले कभी-कभार गाँव में ऊँची आवाज़ लगा कर सन्देश को आगे से आगे प्रेषित किया जाता था और ऐसा अक्सर तभी होता था जब संदेश शोकाकुल होते यानि जब किसी की मृत्यु हो  जाया  करती। अन्तेय्ष्टि संस्कार से पहले ख़बर को परगने में फैलाने का रिवाज़ पुराना था।  मांगलिक कार्यों में तो अक्सर पुरोहित या सदावक/बुआरा  ( निमंत्रण देने वाला  दिहाड़ीदार ) हो आया करता था ।  किन्तु दोनों ही स्थितियों में वर्तमान में यह जगह मोबाइल फ़ोन ने ले ली है। बहुत से प्रश्न लेकर उनके घर के आंगन में पहुंचे । माज़रा तो कुछ और ही था। सब को समझाते हुए कहते हैं कि “भोज- भाटी कर लो, अपने लिए नहीं तो पशु – पक्षियों के बारे में तो कुछ सोचो ! कुल देवते के पास हाज़री लगा कर उनसे प्रार्थना करो ,अब तो मंदिर भी सरकार ने खोल दिए। कमरु नाग से बारिश की विनती करो। कुछ ख्वाजा (जल- देवता / वरुण देव) की कृपा हो जाए तो क्या पता ऊपर धार पर पिछले २ दिन से रह  -रहकर सुलगती आग ही बुझ जाए ! सुबल (पानी का स्त्रोत ) थोड़ा अधिक पानी देने लगे। कुछ भी हो बारिश बहुत आवश्यक है। पिऊ (पपीहा) भी पीहू –पीहू कर रहा है पर उस को तो बरखा का ही पानी चाहिए ; उसे भी तो जमीन पर पड़ा पानी खून ही दिखाई पड़ता है"। ये बात सुन कर कुछ हंसने लगे , कुछ एक- दूजे का मुंह ताकने लगे। बीच में ही बिट्टू बोल पड़ा कि स्याणा (बुजुर्ग ) सठिया गया है। आज लगभग 15 बरस  बाद भोज – भाटी के लिए कह रहा है जब कि 15 बरस  पहले भी कभी ही बिरले इसको करते थे। गलती भी तो लगभग 20 साल पहले हमने ही की थी ,जहां इतना बड़ा जलाशय था कि सारे गाँव के पशु पानी पीते थे ,स्कूली बच्चे तख्तियाँ धोया –सुखाया करते थे उसे आधुनिक बनने के चक्कर में कंक्रीट में बदलकर पूरा सूखा दिया था। आज वहां एक बूँद पानी की नहीं और पेड़ भी लगभग सुख चुके हैं। तरह –तरह की 100 दलीलों के बाद यह तय हुआ कि कल भोज –भाटी प्राकृतिक चश्मों के समीप की जायेगी औरआज वहां उन चश्मों को साफ़ किया जाएगा और विधिवत पूजा गाँव की तरफ से होगी। ग्वालुआं री भोज भाटी ओ –ओ बरखे , ओ –ओ बरखे, गऊआं तेरिया त्याईया, बछिया तेरिया त्याईया, ग्वालू तेरे भूखे। ओ - ओबरखे ..... ये चंद पंक्तियाँ चरितार्थ करती है  ,सुसंस्कृत ,समृद्ध लोक संस्कृति को या यूँ कहें कि हर मर्ज का इलाज बुजुर्गों के पास था जो कि उन्हें समृद्ध वैदिक और पहाड़ी संस्कृति से मिला था। बात कर रहें हैं भोज- भाटी (ग्वालुओं द्वारा किसी विशेष स्थान पर भोजन पकाना और खाना ) की। शायद आज हाज़रू दादू के दिमाग में ये बात इसलिए आयी क्योँ कि आज कुदरत मेहरबान होने की जगह दिनों –दिन रुठ सी रही है और बारिश न होने के कारण न केवल पहाड़ों किन्तु मैदानी इलाकों में भी त्राहि –त्राहि मची हुई है। गौरतलब है कि फसल जैसे प्याज़ ,लहसुन इत्यादि के लिए ये समय उपयुक्त  है और इस दौरान खासकर पहाड़ों में पानी बरसना जरुरी है। मुझे याद आता है वो बचपन ,जब गावँ के हम सभी छोटे – छोटे बच्चे इस खेल-प्रथा में भाग लेते थे और हममें से कुछ अलग –अलग पोशाक पहन कर और कई बच्चे अपना मुँह रंग कर हर घर से अनाज मांगते थे। औरतेल , हल्दी- नमक मांगने पर यह ऊपर लिखे शब्द दोहराते थे , किन्तु सच कहूं तो अब इन शब्दों की स्मृति भी बहुत धुंधली है  और अब याद किसी भी एक व्यक्ति को नहीं आते। सभी के पास अतीत की धुंधली सी यादें है। एक स्थान जहां दो -तीन छोटे –छोटे जलाशय थे वहां पर सारा सामान ला कर लकड़ियां इक्कठा करके दो – तीन चूल्हे बनाकर उन पर जैसे-तैसे कच्चा – पक्का तैयार करते थे औरकृष्ण भगवन , स्थानीय इष्ट और गौमाता, जलदेवता (ख्वाजा) को यथा स्थिति शुद्ध भाव से भोग लगा कर सभी बच्चे खाते थे और जंगली पतों (तैयाम्बल, टौंर ) के ऊपर ही उसे परोसा जाता था। हम सभी उस समय खुद को होटल के शेफ /खानसामा से कम नहीं समझते थे। पर हम अक्सर देखते हैं कि भोज-भाटी करने के 2 या 3 दिन के अंदर बारिश हो ही जाया करती थी। शायद ये प्रथा उस समय से चली हो जब गोकुल में श्रीकृष्ण अपने बाल –सखाओं के साथ गौएँ चराने वन में जाया करते थे और बाल गोपाल और सखा अपने- अपने घरों से सामान लाकर वन में धमाल मचाते थे और सायं काल गौ-धूलि घर आ जाते थे। किन्तु आज पशु- धन भी नहीं है और गाँव में बच्चों की भी कमी। और यदि छुटियों में शहर से गावँ आना हो भी जाये तो प्रथा का निर्वहन करने से रोकने वाले मोड्रेन लोग भी हैं जो खाने को अनहाइजेनिक बताएँगे इसलिए ये प्रथा भी खत्म और हम जैसे लोगों का जोश भी ठंडा। क्यों कि कुछ प्रबुद्ध जनों से इस वाकये को साझा किया तो पता चला कि मध्यप्रदेश ,राजस्थान और उत्तर-प्रदेश में भी लगभग ऐसा ही पर्व आज भी कुछ जगहों पर मनाया जाता है और शायद हमें ज्ञान न हो किन्तु समूचे देश में ऐसी कुछ प्रथाएं आज भी जीवित हैं । किन्तु, हाज़रू दादू के तंज़ और हठ ने हमें प्राचीन परम्पराओं से जोड़ सोचने को विवश कर दिया कि आधुनिकता की आपाधापी में हम अनेक सुसंस्कृत संस्कारों को नष्ट कर चुके हैं। लेखक, ललित गर्ग
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