आदर्श हिमाचल ब्यूरों
उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में जलवायु परिवर्तन की मार ने खेती के नक्शे को पूरी तरह बदल दिया है। क्लाइमेट ट्रेंड्स की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले एक दशक में जहां खाद्यान्न और तिलहन जैसी परंपरागत फसलों का दायरा 27% तक सिमट गया है, वहीं दलहन और मसालों की खेती में ज़बरदस्त उछाल दर्ज किया गया है।
रिपोर्ट ‘पहाड़ों में जल और ताप तनाव: जलवायु परिवर्तन उत्तराखंड के कृषि परिदृश्य को कैसे आकार दे रहा है’ बताती है कि बढ़ते तापमान, अनियमित बारिश और जल संकट के चलते किसान अब गेहूं, धान और आलू जैसी पानी मांगने वाली फसलों से दूरी बना रहे हैं। इनकी जगह अब अरहर, कुल्थी, रामदाना, भट्ट और मक्का जैसी पारंपरिक और लचीली फसलें ले रही हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि बदलते मौसम पैटर्न और घटती बर्फबारी इसकी मुख्य वजह हैं। कृषि विज्ञान केंद्र, उधम सिंह नगर में तैनात डॉ. अनिल कुमार के मुताबिक, “पहाड़ों में आलू की खेती अब पहले जैसी नहीं रही। बारिश और बर्फबारी दोनों का अभाव है, जिससे उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है।”
खेती को सिर्फ मौसम ही नहीं, जंगली जानवरों से भी नुकसान हो रहा है। लोक चेतना मंच के अध्यक्ष जोगेंद्र बिष्ट बताते हैं कि खेतों में अब नमी टिकती नहीं और ऊपर से जंगली सूअर रातों को पूरी फसल उजाड़ देते हैं। “पानी की कमी, तापमान में इज़ाफा और जानवरों का बढ़ता खतरा—तीनों ने पारंपरिक फसलों की राह मुश्किल कर दी है।”
भारत के मौसम आपदा एटलस के अनुसार, वर्ष 2023 में उत्तराखंड में कुल 94 दिनों तक चरम मौसम की स्थितियां बनी रहीं, जिससे 44,882 हेक्टेयर कृषि भूमि प्रभावित हुई। साथ ही, तापमान में हर साल 0.02 डिग्री सेल्सियस की औसत बढ़ोतरी दर्ज की गई।
गहत, भट्ट, चना और अरहर जैसी देशी दालें अब किसानों के लिए नई उम्मीद बन रही हैं। ये फसलें कम पानी और कम इनपुट में भी अच्छी उपज देती हैं और पोषण के लिहाज़ से भी काफी समृद्ध हैं।
सरसों, तोरिया और सोयाबीन जैसी तिलहन फसलें अभी छोटे स्तर पर हैं, लेकिन इनमें वृद्धि की प्रवृत्ति दिख रही है। हालाँकि इनकी औसत पैदावार में सुधार की गुंजाइश अभी बाकी है।
उत्तराखंड की पारंपरिक बारानाजा बहुफसली प्रणाली अब इतिहास बनती जा रही है, लेकिन किसान अब नई बहुफसली रणनीतियों के साथ प्रयोग कर रहे हैं। दलहन पर केंद्र सरकार के आत्मनिर्भरता मिशन और बाज़ार सहयोग ने भी किसानों को नई राह अपनाने के लिए प्रेरित किया है।


जोगेंद्र बिष्ट कहते हैं, “पहले जहां किसान धान-गेहूं पर निर्भर थे, अब वे काली सोयाबीन, कुल्थी और मक्का जैसी फसलों की ओर बढ़ रहे हैं। ये न सिर्फ मौसम के अनुकूल हैं, बल्कि बाज़ार में इनकी मांग भी बढ़ रही है।”