”मील  का पत्थर साबित होगी -सूखाआश्रय योजना ”

आदर्श हिमाचल ब्यूरो

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शिमला। निराश्रित एवं अनाथ बच्चों को संवेदनहीन, संस्कारहीन एवं अनुशासनहीन आदि आदि विश्लेषकों से अलंकृत होते देखा है। जन्मदिवस, मातृ दिवस एवं पितृ दिवस पर इनकी आंखें नम, दिमाग सुन और चेहरे को मायूस पाया है। विद्यालय में अध्यापक -अभिभावक बैठक में उनको प्रांगण के एक कोने में रोते हुए दिखा है। प्रत्येक समारोह एवं त्योहारों के अगले दिन सहपाठियों द्वारा उस पर चर्चा के दौरान एक नजर से उनको ताकते हुए अपने भाग्य को कोसते देखा है । इनको भी लगता होगा काश उनका भी परिवार होता जिसके साथ में अठखेलियां करते अगले दिन  सब को सुनाते। इन्हें अपना कहने योग्य कोई नहीं। धरती ही उनकी मां और आकाश ही उनका पिता है। इसीलिए इनकी  नजरे हमेशा नीचे धरती मां की ओर या फिर उपर आकाश की ओर पाई जाती है। कभी ऐसे बालक बालिकाओं को नजर मिला कर बात करते नहीं देखा , शायद उनमें अपनत्व की भावना का बौद्ध  नहीं होता। ऐसे वर्ग के साथ लंबा समय बिताने और उनके अनुभवों एवं भावनाओं को जानने के पश्चात समझा जा सकता है कि पीड़ा क्या होती है ? हर एक की कहानी अलग लेकिन सबका दुख एक
। इस प्रकार के बच्चों की मनोदशा का आंकलन आप स्वयं लगा सकते हैं। हमारे घरों में एक को ज़ुकाम हो जाए या स्त्री अस्वस्थ हो जाए तो पूरे घर की व्यवस्था चरमरा जाती है और हम मानसिक असंतुलन के शिकार हो जाते हैं। ऐसी दशा में निराश्रित एवं अनाथ बच्चों से प्रतियोगी परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने की आशा रखना भी बेईमानी सा लगता है। एक बार दो बालकों से मिलना हुआ, गुफ्तगू के दौरान मालूम हुआ कि दोनों सगे भाई हैं। 5 से 7 वर्ष की आयु  रही होगी जब इनके माता-पिता का देहांत हो गया । सरकार ने आश्रम में प्रवेश करवा कर  अच्छे विद्यालय में शिक्षा दी और पालन पोषण कर  अपने पैरों पर  खड़ा होने लायक बनाया। लेकिन उनकी पीड़ा  व मनोदशा  दिन प्रति दिन सुधार होने के बजाय बिगड़ती नजर आई । क्योंकि इनके समक्ष समय के साथ-साथ सामाजिक जीवन में प्रवेश कर अपने आप को स्थापित करने की चुनौती है। यही दशा बालिकाओं की भी होती है। उन पर से माता पिता का साया जैसे ही उठ जाता है उनको वह संस्कार संस्थाएं व समाज नहीं दे पाता इससे उनका मानसिक और शारीरिक विकास हो सके। कई बार उन पर संबंधी और समाज का अनावश्यक दबाव देखा जा सकता है। इसे नियति का खेल कहो या हमारा दुर्भाग्य  कि भाई की संतान एवं परिवार की जिम्मेवारी उस पर न आ जाए और उसे स्वतंत्रता व एसो -आराम छोड़ परिवारिक अनुशासन की नौबत आ जाए तो सगा भाई भी साथ छोड़ देता है। समाज की ठोकरें खाने के लिए वह बदनसीब परिवार मजबूर हो जाता है। ये वर्ग एक ऐसा वर्ग है जो भावनात्मक दृष्टि से बेहद कमजोर  व अति संवेदनशील होता है। इसके कारण नकारात्मक बातों का प्रभाव उन पर शीघ्र पड़ता है और ये समाज के नकारात्मक पहलू पर अपना ध्यान ज्यादा केंद्रित करते हैं।

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यद्यपि इन के उत्थान के लिए योजनाओं की कमी नहीं है। हिमाचल प्रदेश के परिपेक्ष में देखा जाए तो महिला एवम बाल विकास विभाग  के माध्यम से मिशन वात्सल्य की भावना के अनुरूप ऐसी योजनाएं हैं जो  पूर्ण रूप से इस उपेक्षित वर्ग के लिए समर्पित है । गैर सरकारी संस्थाएं भी इस क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। रहनुमाओं ने अपने अपने स्तर पर अपनी-अपनी समझ के मुताबिक कार्य किए। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री  माननीय श्री सुखविंदर सिंह सुक्खू जी ने मानवता से सराबोर होकर एक सौ एक  करोड़ रुपए की राशि से सूखाआश्रय नामक योजना का शुभारंभ किया। जिसके लिए धन की व्यवस्था  दान माध्यम से एकत्रित की जाएगी । जिसका लक्ष्य लाचार एवं बेसहारा लोगों को सक्षम व सशक्त बनाना एवं सुरक्षा प्रदान करना है।किस का मन नहीं करता त्यौहार  एवं पर्व को अपने हिसाब से मनाएं । कौन नहीं चाहता कि एक दिन वह भी  संस्था के बंधन से मुक्त अपना मनपसंद व्यंजन खाय और परिधान पहने । यह इस बात का परिचायक है प्रदेश के मुखिया समाज के सबसे विकसित वर्ग के प्रति कितने संवेदनशील है। इसकी भावना को समझना व उस पर त्वरित कार्यवाही करते हुए अमलीजामा पहनाना ,सही मायने में रामराज्य की कल्पना को साकार करेगा।  परोपकार अपने घर से प्रारंभ होता है का अनुसरण करते हुए मुख्यमंत्री महोदय ने  अपना पहला वेतन इस परोपकारी योजना के लिए समर्पित किया । संकल्प से सिद्धि की ओर अग्रसर होने का इससे उत्कृष्ट उदाहरण नहीं हो सकता। हमारा इतिहास दानी सज्जनों की गाथाओं से भरा पड़ा है। “ आमिष  दिया जिन्होंने अपना  शयेन भक्षण के लिए , जो बिक गए चांडाल के घर सत्य रक्षण के लिए,   दे दी जिन्होंने अस्थियां परमार्थ हित जाना जहां, शिवि ,हरीशचंद्र ,दधीचि से होते है दानी यहां ”। देव भूमि हिमाचल प्रदेश में  इस महत्वकांक्षी एवं परोपकारी योजना के लिए धन की कमी की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
सूखाआश्रय योजना जहां उपेक्षित वर्ग में विश्वास की भावना पैदा करेगी और भावनात्मक रिश्ता कायम कर अनाथों एवं निराश्रित जनों के मनोबल को उड़ान देगी। जिस प्रकार शरीर का प्रत्येक अंग महत्वपूर्ण है उसी प्रकार समाज का हर व्यक्ति महत्वपूर्ण है । उसकी मानसिक, सामाजिक  एवं आर्थिक मजबूती  में प्रत्येक व्यक्ति का हित निहित है।
“जो दूसरे को मारकर खाता है उसे विकृति कहते हैं, जो मिलकर खाते हैं उसे प्रकृति कहते हैं और जो पहले दूसरों को खिलाता है फिर खुद खाता है उसे संस्कृति कहते हैं” इसी भावना से ओतप्रोत यह योजना आने वाले समय में एक  मील  का पत्थर साबित होगी । जिसमें इस वर्ग  के उत्थान के साथ-साथ पुनर्वास पर बल देकर इनकी भाग्य रेखाओं का विस्तार व सरंक्षण नितांत आवश्यक है। यह योजना लोक लुभावनी योजनाओं से कई गुना बेहतर साबित होगी क्योंकि इससे मानव संपदा का दोहन  व ऊर्जा का उत्सर्जन होगा जबकि लोक लुभावनी योजनाओं से काफी हद तक संपदा व ऊर्जा क्षीण होगी। आओ हम सब मिलकर इस पुण्य यज्ञ को यथाशक्ति आहुति दे कर सफल बनाएं।