प्रकृति हूं, स्मरण नहीं ऐसा श्रृंगार पहले कब किया होगा

आदर्श हिमाचल विशेष

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प्रकृति हूं,
स्मरण नहीं ऐसा श्रृंगार पहले कब किया होगा
रोम-रोम पुलकित हो रहा, धरा अंबर दर्पण सा दिख रहा ।

प्रत्येक वर्ष 22 अप्रैल पृथ्वी दिवस के रूप में मनाया जाता है। 50वें पृथ्वी दिवस पर पहली बार कोई आधिकारिक कार्यक्रम नहीं होगा । वर्तमान परिवेश स्पष्ट तौर से इंगित करता है की पहली बार बिना कोई कार्यक्रम आयोजित किए हम धरती और प्रकृति के महत्व को सही ढंग से समझने में कामयाब हुए हैं । पूरी कायनात में पृथ्वी एक मात्र ऐसा ग्रह है ,जिस पर जीवन है।

हमारा हर दिवस धरती मां की कृपा से गतिमान रहता है । आश्चर्य इस बात का है की जब-जब सरकारी अमले ने बहुत बड़ी राशि खर्च कर पृथ्वी दिवस मनाया उसके कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं दिखे। वैश्विक महामारी कोरोना के साए में पृथ्वी पर सबसे कम दबाव है और धरती अपना स्वत: उपचार कर रही है । यह दुखद परिस्थिति संपूर्ण प्रकृति के लिए अप्रत्यक्ष कृपा दान के रूप में सामने आई । भले ही पृथ्वी के संदर्भ में कोई व्यक्ति विशिष्ट जानकारी नहीं रखता हो लेकिन व्यवहारिक ज्ञान जरूर रखता है । वह समझता है कि पृथ्वी पर जीवन तभी संभव है , जब उसका संरक्षण औऱ सम्मान किया जाएगा । धन्य है हमारी परंपरा एवं ऋषि मुनि जिन्होंने धरती के साथ मां का रिश्ता जोड़ा। हमारे जन्म से लेकर अंतिम क्षण तक धरती मां हम सब प्राणियों के लिए बिना किसी भेदभाव के निस्वार्थ समर्पित रहती है।
गुलजार साहब ने बहुत खूब कहा कि
“ इतना सस्ता और कहां सौदा मिलेगा
बीज दो जमीन को पौधा मिलेगा”
पृथ्वी में हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति की अथाह क्षमता है । लेकिन हम निर्लज्ज प्राणी उस पर जो अत्याचार कर रहे हैं उसके लिए हर शब्द छोटा है। अनुभवों एवं शोधों ने यह साबित किया कि प्राकृतिक नियमों के साथ-साथ सामाजिक संस्कारों का उल्लंघन हमेशा समृद्ध वर्ग ने ज्यादा किया है । ठीक वैसे ही जैसे उसे मालूम है कि भ्रष्टाचार एवं अतिक्रमण मानवीय मूल्यों और नियमों के खिलाफ है फिर भी वह ऐसे अनैतिक कार्यों में संलिप्त रहता है । यही दशा धरती मां की हो रही है केवल जानकार लोगों ने अपनी विलासिता के लिए इसके वक्ष को छलनी कर दिया। पृथ्वी मानव, वन्य प्राणियों एवं वनस्पतियों की शरण स्थली है । हम सब एक दूसरे के परिपूरक है। पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने के लिए वन्य वनस्पति एवं प्राणियों का संरक्षण हमारी नैतिक एवं संवैधानिक जिम्मेदारी है ।

यही कारण रहा होगा कि हमारे ऋषि-मुनियों ने वन्य प्राणियों को देवी देवताओं के वाहन , वृक्षों तथा पृथ्वी के प्रत्येक तत्व को धर्म एवं आस्था का विषय माना । लेकिन अपनी भोग विलासिता,
अहम व वहम के दंभ से ओतप्रोत हमने इनकी सीमा मे अतिक्रमण करना प्रारंभ कर दिया । परिणाम स्वरूप आज 10 लाख के लगभग वन्य वनस्पति एवं प्रजातियां विलुप्त हो गई या होने की कगार पर है। लाखों प्रजातियां अपने अस्तित्व की जंग लड़ रही है । विकास का आधुनिक मॉडल हमारी धरती मां का दुश्मन बन बैठा है । खतरनाक गैसों के उत्सर्जन से ओजोन परत जो पृथ्वी का रक्षा कवच है दिन प्रतिदिन कम होती जा रही है। प्रदूषण का आलम यह है कि दिल्ली जैसे महानगरों को माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गैस के गोले तक की संज्ञा दी गई। दृश्यता शून्य तक पहुंच जाती थी । यमुना में गंदगी का स्तर हम सबके सामने था । पतित पावनी गंगा को उसके मूल रूप में लाने के लिए 20000 करोड से अधिक का बजट खर्च किया जा रहा है । एक सेंटीमीटर मिट्टी की परत को बनने के लिए 400 वर्ष तक का समय लग जाता है। फिर भी मृदा अपरदन को रोकने के लिए मानवीय प्रयास नगण्य है। औद्योगिक विकास के नाम पर नदी ,नालों, वृक्ष और पहाड़ों की बलि जिस गति से दी जा रही है वह हमारे अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी है। ।जानकारी होते हुए भी मनुष्य इस मुगालते में जी रहा है कि वह प्रकृति के हर नियम से ऊपर है । भौतिक जगत पर प्रभुत्व जताने की इच्छा ही हमारे पतन का अध्याय लिखेगी।
“ हे मानव तू प्रकृति का पुत्र
सम्मान करना भुला मां का
कोपभाजन होना होगा
अपनी उद्दंडता का परिणाम भुगतना होगा”

प्रकृति में प्राकृतिक न्याय स्थापित करने का अति विशिष्ट गुण है । मंजर भोपाली का शायर इसी गुण की याद करवाता है :-
“कोई बचने का नहीं सब का पता जानती है
किस तरफ आग लगाना है हवा जानती है”
समय-समय पर प्राकृतिक आपदाएं एवं महामारी इसके उदाहरण है । इतिहास साक्षी है कि संस्कार एवं संस्कृति पूर्वक प्रकृति के दोहन ने हमें शिखर तक पहुंचाया है । जब मानव जाति ने इसके नियमों से खिलवाड़ किया उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी । कोरोना जिसने संपूर्ण मनुष्य जाति को संकट में डाल दिया इसका ज्वलंत उदाहरण है ।
प्रकृति ने महामारी के माध्यम से कड़ा संदेश दिया है कि हम इस सृष्टि के किराएदार है मालिक नहीं ।इसके नियमों के पालन में ही हमारा सुख निहित है।

प्रकृति आज निखर कर सामने आ गई है । प्रकृति का हर रूप स्वच्छ और निर्मल हमारे समक्ष है । कारण कोई भी हो मानव को समझ लेना चाहिए कि वह कुदरत से ऊपर नहीं ।आज जब मौत सामने दिखने लगी तो पहिए थम गए, कारखाने बंद हो गए न केवल दिल्ली पूरी दुनिया का वातावरण प्रकृति ने स्वत: स्वच्छ कर दिया। पक्षी फिर से चहचाने लगे , नदियां- नाले निर्मल होकर बहने लगे तथा वायु व ध्वनि प्रदूषण का नामोनिशान मिट गया। धरती मां की महानता तो देखो आज भी महामारी से लड़ने के लिए हमें शुद्ध प्राणवायु उपलब्ध कर रही है।

लेकिन अपने कृत्य की सजा हमें इस कदर मिल रही है कि जब कई वर्षों के बाद शुद्ध आबो- हवा चल रही है तो हमें मास्क लगाकर ही घर से निकलना पड़ता है । दुखद परिस्थिति में सुखद अनुभूति यह की ओजोन परत का घाव भरने लगा औऱ महानगरों से पहाड़- पर्वत के दर्शन होने लगे। विध्वंस से बचने के लिए हमें जीवन शैली में मूल चूक परिवर्तन करने की आवश्यकता है।

आओ हम महामारी से सीख लेते हुए पृथ्वी दिवस पर यह संकल्प लें कि पृथ्वी का संरक्षण हमारे अस्तित्व के लिए नितांत आवश्यक है जो धन से नहीं संकल्प , संयम, अनुशासन और मन से ही संभव है। हमें सदैव स्मरण रहना चाहिए कि यह ग्रह हमें पूर्वजों से उत्तराधिकार में नहीं मिला, अपने बच्चों से उधार में मिला है ।

परम देव शर्मा
शिमला हिमाचल प्रदेश