देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को आखिर कैसे मिला चुनाव चिन्ह “कमल”, भाजपा के नामकरण की दिलचस्प कहानी

आदर्श हिमाचल ब्यूरो

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स्पेशल डेस्क: बीते 6 अप्रैल को भाजपा ने अपना 42 वा स्थापना दिवस मनाया और इन 42 सालों में भाजपा की स्थिति में असाधारण परिवर्तन नजर आया है। वर्ष 1980 में स्थापित हुई भाजपा, आज न केवल देश की बल्कि विश्व की सबसे बड़ी पार्टी है, और इस मामले में इसने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को भी पीछे छोड़ दिया है। जहां चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की संख्या 9 करोड़ के आसपास है तो वहीं भाजपा में यह संख्या 17 करोड़ से ऊपर की है।

मौजूदा भाजपा को कैसे मिला नाम “भारतीय जनता पार्टी”

भाजपा की स्थापना की कहानी भी अपने आप में बड़ी दिलचस्प है। 70 के दशक में कांग्रेस को चुनौती देने वाला जनता दल बिखराव की कगार पर था और 80 के आम चुनाव में महज़ 31 सीटों पर सिमट गया। जिसके बाद पार्टी में मंथन हुआ और उस समय जनता दल के नेताओं ने जनता दल से जुड़े नेताओं में खास तौर पर वह नेता जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे उनकी दोहरी सदस्यता को मानने से इनकार कर दिया। जनता दल के इस एक फैसले ने भारतीय राजनीति का सारा समीकरण बदल कर रख दिया। जिसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में मुरली मनोहर जोशी और दूसरे नेताओं ने नया रास्ता अख्तियार करने की दिशा में कदम बढ़ाया और एक नए दल की नींव रखी।

भाजपा की तरफ से उप प्रधानमंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी अपनी किताब “मेरा भारत मेरा जीवन” में जिक्र करते हैं भाजपा के लिए पहले जिस नाम पर चर्चा हो रही थी वह था भारतीय जनसंघ मगर बाद में पूर्व प्रधानमंत्री और भाजपा के पहले राष्ट्र अध्यक्ष अटल बिहारी बाजपेई के सुझाव को ज्यादा समर्थन प्राप्त हुआ और पार्टी का नाम पड़ा भारतीय जनता पार्टी ।

भाजपा को कैसे मिला आईकॉनिक “कमल” चुनाव चिन्ह

जिस तरह बीजेपी को अपना नाम मिला वैसे ही उसे कमल चुनाव चिन्ह मिलने का किस्सा भी बड़ा रोचक है। दरअसल तब पार्टी के झंडे में जनता दल के निशान “दीये” की जगह “कमल” ने ले ली थी, और 1980 में पैदा हुई भाजपा चुनावों में उतरना चाहती थी। मगर तब तक देश में चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी और अभी तक नई नवेली भारतीय जनता पार्टी दलों की सूची में सूचित भी नहीं थी।

लालकृष्ण आडवाणी की किताब “मेरा भारत मेरा जीवन” में जिक्र मिलता है कि तब भाजपा को चुनाव प्रक्रिया में शामिल करने का जिम्मा लालकृष्ण आडवाणी को मिला और इसके लिए वह मिले तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एस.एल शकदर से मगर चुनाव प्रक्रिया अपने प्रारंभिक चरण पर थी ऐसे में चुनाव आयुक्त शकदर ने भाजपा को शामिल करने से मना कर दिया। इस पर लालकृष्ण आडवाणी ने जब उनसे आग्रह किया तो शकदर ने उन्हें एक रास्ता सुझाया और कहा कि आडवाणी आजाद उम्मीदवारों को दिए जाने वाले चिन्हों में से किसी एक चुनाव चिन्ह का चुनाव कर ले और शकदर ने कहा कि वे भाजपा के प्रत्याशियों को उसी एक चुनाव चिन्ह को रखने की अनुमति दे देंगे। लालकृष्ण आडवाणी लिखते हैं कि जब उन्होंने चिन्ह देखने शुरू किए तो वह बेहद प्रसन्न हुए क्योंकि उसमें एक चुनाव चिन्ह कमल का फूल था, जिसके बाद लालकृष्ण आडवाणी ने शकदर से कमल के फूल को चुनाव चिन्ह के तौर पर देने का आग्रह किया। कमल का फूल चिन्ह देखते ही शकदर मुस्कुराए, दरअसल शकदर भी इस बात से वाकिफ थे कि भारतीय जनता पार्टी के झंडे में कमल का फूल है ऐसे में भाजपा के प्रतिनिधियों को कमल का फूल आजाद उम्मीदवार के तौर पर चुनाव चिन्ह देने का फैसला हुआ।

खैर आज भाजपा देश की सबसे बड़ी पार्टी है मगर सारी मुश्किलें हल करने के बाद भी वर्ष 1984 के आम चुनावों में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी और भाजपा के केवल दो सांसद सदन में पहुंचे। इनमें से एक थे पहले जनसंघ का हिस्सा रहे और बाद में भाजपा के गुजरात के प्रदेशाध्यक्ष रहे डॉक्टर एके पटेल इसके अलावा भाजपा का वह दूसरा सांसद जो सदन तक पहुंचने में कामयाब हुआ वह थे आंध्रा के रहने वाले और नरसिम्हा राव को हराकर सदन में पहुंचने वाले चंगूपातला जंगा रेडी। भाजपा की इस करारी हार पर सदन में तब के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एक बहुचर्चित तंज कसा था “हम दो हमारे दो” दरअसल यह व्यंग भाजपा के दो प्रमुख और शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेई और लाल कृष्ण आडवाणी तथा सदन में उनके दो सदस्यों को लेकर था। खैर समय का चक्र कुछ यूं घुमा कि तब 426 सीटें पाने वाली कांग्रेस 2019 के आम चुनावों में 53 सीटों पर आकर सिमट गई। यह है एक सीख है कि लोकतंत्र में संभावनाओं की कमी नहीं है आवश्यकता है काम, इच्छा शक्ति और निश्चय की।