किसान-बागवान औसतन 10 बीघा भूमि पर इस खेती विधि को अपना रहे हैं।

 

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आदर्श हिमाचल ब्यूरो

किनौर,  नैसर्गिक सुंदरता और सेब के लिए मशहूर किन्नौर जिला में किसानों का प्राकृतिक खेती के प्रति रूझान बढ़ रहा है। जिला के किसान-बागवान औसतन 10 बीघा भूमि पर इस खेती विधि को अपना रहे हैं। आतमा परियोजना किन्नौर के अनुसार जिला के तीन विकास खंडों निचार, कल्पा और पूह के लगभग 2 हजार किसान इस विधि से सेब, बादाम, चिलगोजा, अंगूर, अखरोट, ओगला, फाफरा, मटर और राजमाश जैसी फसलें ले रहे हैं। इस विधि से जहां किसानों की आदान हेतू बाजार पर निर्भरता कम हुई है वहीं उत्पादन में इजाफा भी हुआ है।

कल्पा विकास खंड के 63 साल के आत्मा राम ने बताया कि उन्होंने रसायनिक और जैविक दोनों तरह की पद्धतियों का प्रयोग करने के बाद प्राकृतिक खेती की शुरूआत की है। जब वह रसायनिक और जैविक खेती कर रहे थे तो बाजार में दुकानदार अपने हिसाब से कीटनाशक और अन्य आदान देते थे। हर बार बाजार में नए कीटनाशक और आदान आते थे जो खेती-बागवानी के खर्च को बढ़ा रहे थे। एक साल अच्छी फसल मिलती थी और दूसरे साल फसल कम हो जाती थी लेकिन इस विधि को अपनाने के बाद उत्पादन की अस्थिरता कम हुई है। इस साल अपने खेतों से उन्होंने 1.5 क्विंटल गोभी, 1 क्विंटल टमाटर, 1 क्विंटल कद्दू की फसल ली है।

सेब उत्पादन में 30% का इजाफा

पूह विकास खंड के ग्याबोंग निवासी इंद्र प्रकाश का कहना है कि प्राकृतिक खेती से न केवल लागत में कमी आ रही है बल्कि उत्पादन भी बढ़ रहा है। 3 साल से प्राकृतिक खेती कर रहे इस बागवान के सेब उत्पादन में 30 प्रतिशत का उछाल आया है। 12 बीघा में 600 से अधिक पौधों पर प्राकृतिक खेती कर रहे इंद्र प्रकाश ने पिछले साल 2,000 पेटी सेब की पैदावार ली है। इद्र प्रकाश पहले जैविक खेती करते थे जिसमें 50 हजार का सालान खर्च आता था। इस विधि में आने के बाद उनका खर्च 10 हजार रह गया है।

महिलाओं को सशक्त कर रही प्राकृतिक खेती

किसानी की तस्वीर बदलने के साथ-साथ प्राकृतिक खेती महिलाओं को भी सशक्त कर रही है। किल्बा गांव की गंगा सरनी बिष्ट का कहना है कि यह विधि महिला किसानों में आत्मविश्वास जगा रही है। जो महिलाएं पहले कभी घर से बाहर भी नहीं निकलती थी वह इस खेती से जुड़ने के बाद आस-पास की पंचायतों में इस अभियान का प्रचार कर रही हैं। जिला में कई महिला समूह भी उभरे हैं जो इस खेती को बढ़ावा दे रहे हैं। 54 वर्षीय गंगा सरनी व्यक्तिगत तौर पर 5.5 बीघा भूमि में सेब के साथ मूली, धनिया, फ्रासबीन, आलू, मटर, गाजर, लौकी, खीरा की उपज ले रही हैं। उन्होंने 2018 में कुफरी में सुभाष पालेकर से 6 दिन का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद इस विधि को अपनाया है।

सेब की सेल्फ लाइफ हुई दोगुनी

प्राकृतिक खेती से सेब की सेल्फ लाइफ दोगुनी हो गई है। पहले जो सेब 4 से 5 महीने टिकता था अब वह 8 से 9 महीने टिकता है। फल की गुणवत्ता और स्वाद में रत्तीभर भी अंतर नहीं आता है। यह कहना है लिप्पा गांव के बागवान रामसेन राही का जो 2018 से प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। जैविक खेती को छोड़ प्राकृतिक खेती का दामन थामने वाले रामसेन वर्तमान में 11 बीघा भूमि पर इस विधि से विविध फसलें ले रहे हैं। रामसेन ने बताया कि ज्यादातर किसान रसायनों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन ये रसायन खेत और पेट दोनों के लिए खराब हैं। इनसे जहां खेत-बागीचे की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है वहीं रसायनों से उगाए भोज्य पदार्थ हमें तरह-तरह की बीमारियां से घेर लेते हैं। अच्छी सेहत के लिए रसायनिक तरीके से तैयार फल सब्जी को छोड़ प्राकृतिक खेती से उगी सब्जी को तरजीह देना इस विधि को अपना रहे किसानों और उपभोक्ताओं दोनों के लिए फायदेमंद है।

देश के आखिरी गांव में भी हो रही प्राकृतिक खेती

चीन की सीमा के साथ सटे देश के आखिरी गांव छितकुल में भी प्राकृतिक खेती अपनी पहुंच बना चुकी है। साल में एक फसल सीजन लेने वाले इस क्षेत्र में किसान सुशील सागर प्राकृतिक खेती के ध्वजवाहक बनकर उभरे हैं। 2019 में नौणी विश्वविद्यालय से प्राकृतिक खेती का प्रशिक्षण लेने वाले सुशील अब गांव के अन्य लोगों को भी पर्यावरण हितैषी प्राकृतिक खेती से जोड़ रहे हैं।

सुशील ने प्राकृतिक खेती आदान बनाने के लिए स्थानीय तौर पर जुमू के नाम विख्यात याक के गोबर और गोमूत्र का इस्तेमाल कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि आलू और मटर यहां की प्रमुख फसल है इसलिए प्रशिक्षण के बाद उन्होंने इन फसलों से ही प्राकृतिक खेती की शुरूआत की है। इस विधि से जब उन्होंने आलू की उपज ली तो वे हैरत में आ गए, जहां आलू का आकार बढ़ गया था वहीं  यह पहले की तुलना में ज्यादा ठोस था। मटर के दाने भी ज्यादा थे जिसके फलस्वरूप प्रति बोरी भार बढ़ा। इस साल उन्होंने 3 क्विंटल गेहूं, 15 क्विंटल आलू, 20 क्विंटल मटर उगाया है।

प्राकृतिक खेती खुशहाल किसान योजना के कार्यकारी निदेशक प्रो. राजेश्वर सिंह चंदेल ने बताया कि किन्नौर में प्राकृतिक खेती को किसान समुदाय का अच्छा समर्थन मिल रहा है। तीनों विकास खंडों में किसान-बागवान लगातार इस विधि से जुड़ रहे हैं। पुराने किसान अपने अनुभवों को दूसरे किसानों के साथ साझा कर उन्हें इस विधि के प्रति प्रेरित कर रहे हैं जो रसायनरहित खेती के इस अभियान को मजबूती दे रहा है।

प्राकृतिक खेती का क्रियान्वयन कर रही आतमा परियोजना के जिला उपनिदेशक डॉ. सोमराज नेगी ने बताया कि यह पहली बार है जब मैंने किसानों-बागवानों की किसी खेती विधि के प्रति इतनी जिज्ञासा और उत्सुकता देखी है। प्राकृतिक खेती को अपनाने से मिल रहा अच्छा उत्पादन, गुणवत्ता तथा कृषि लागत में आ रही कमी किसानों-बागवानों को इसके प्रति आकर्षित कर रही है। हमारी जिला टीम लक्ष्य निर्धारित कर किसानों को इस विधि से जोड़ रही है।